Thursday, March 31, 2016



आज से 25
बरस पहले जब भोपाल के आसपास अपनी ड्यूटी के दौरान अनेक जगहें देखने को मिलीं तब तरक्की की ध्वनि सुनते हुए, हो रहे बदलावों को भी देखा। फिर बरेली में पत्रकारिता कार्यशाला के दौरान युवा पत्रकारों को उसी अनुभव के आधार पर फीचर लेखन के विषय भी सुझाए थे। आज 1994 का वो कागज हाथ लगा , ये हैं - मेरे उस वक्त के पसंदीदा विषय।

रायसेन के किले से दिखता है भोपाल, साँची के स्तूप: पत्थरों पर उत्कीर्ण इतिहास, भोजपुर शिव-मंदिर - भक्तों और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र, आशापुरी का अनोखा पुरातत्व संग्रहालय, बोरास घाट: मध्यप्रदेश का जलियांवाला बाग, भीम बैठका की शैलचित्र- पहाड़ियों का जादू, होली पर्व पर लगने वाला अनोखा बीरबम्बोल का मेला, सिलवानी अंचल की मड़ई: ग्रामीणों का उत्सव , बारला की कलात्मक पर्वत ऋंखलाएं , बेगमगंज के पास अद्वितीय नदियों का संगम , पारतलाई साक्षर कैसे बना , साढ़े बारह गांव में लोक रीतियां, सैलानियों को लुभाता-रातापानी अभ्यारण्य, रायसेन की अमूल्य वन संपदा , नीलकंठेश्वर (हरदौट) का मंदिर, माता परवलिया का आकर्षण मेला, चौकीगढ़ किले की दीवारों में छिपा अतीत , हिंगलाज माँ का मंदिर, प्रमुख आस्था केंद्र, रायसेन - दरगाह शरीफ- सांप्रदायिक सदभाव का प्रतीक स्थल, चिकलोद क्षेत्र में आते हैं हर बरस मेहमान पक्षी , सतधारा, सोनारी के बौद्ध स्तूप सांची से कम नहीं, पीपलखिरिया: रायसेन के निकट एक नए मंडीदीप की तैयारी , चिड़ियां टोल: वर्षाकाल में भीड़ जुटाता पर्यटक स्थल , पैनीगंवा:आज भी जहां मनुष्य आदिमयुग की तरह चट्टानों और टोल में रहता है , पतई घाट: पुण्य सलिला नर्मदा का महत्वपूर्ण घाट , केवलाझिर : जहां आजाद हिंद फौज के बुजुर्ग सैनिक रहते हैं, रायसेन में बसा छोटा-मोटा केरल ईंटखेड़ी, नरवर की काष्ठ कला, बाड़ी का नवेदय विद्यालय- शिक्षा में नया प्रयोग , नीलगढ़ में सामाजिक परिवर्तन, बैलगाड़ी दौड़ - ग्रामीण खेलों में लोक रुचि की प्रतीक, मंडीदीप: जहां सुई से लेकर टेलीफोन उपकरण बनते हैं , रायसेन जिले के पत्थर क्रेशर श्रमिकों की सामाजिक -आर्थिक दशा, सांचेत की सरौतियों की बात है निराली, बहावलपुरी समुदाय का सामाजिक अध्ययन , बारना की सिंचाई से जिंदगी हुई खुशहाल, सीतातलाई की पहाड़ी - एक संभावना से भरपूर पर्यटन स्थल, देवरी के पान लबों की शान, जामगढ़ की दुर्लभ पुरा संपदा , और मध्यप्रदेश का प्रथम पर्यटन जिला रायसेन।

Thursday, January 21, 2016

भोपाल शहर में अनेक स्थानों  पर शहीद हेमू कालानी  के बलिदान दिवस पर उनको श्रद्धांजलि देते हुए उनके बलिदान को  याद किया गया। भोपाल के कुछ   युवा उनके जीवन पर आधारित नाटक में  शहीद की भूमिका भी  निभा चुके हैं। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन  के इस   अमर शहीद के  सगे  छोटे भाई  के मुंह से  भी   एक अवसर पर हेमू की शहादत की दास्ताँ  मैंने सुनी है। आज भी मुंबई में इस कालानी परिवार से मिलकर अहसास होता है कि यह गौरन्वान्वित  कालानी परिवार किस तरह समाज सेवा के मार्ग का अनुसरण कर रहा है। यह बहुत कम  लोगों  को जानकारी है कि  भारत की स्वतंत्रता के लिए शहीद अनेक नौजवानों  के निकट परिजन आज भी बेहद सादी  जिंदगी जीते हैं। ऐसे परिवार सरकार से किसी सहायता की आशा नहीं करते। इन परिवारों  को आज भी नाज़  है कि  उनके परिवार से कोई नौजवान देश की आजादी के लिए शहीद हुआ।  मुंबई के चेम्बूर इलाके में ऐसा ही एक परिवार है - कालानी परिवार जिसे कभी भी  अवसरों  पर शासन के प्रतिष्ठापूर्ण कार्यक्रमों में आमंत्रित नहीं  किया जाता। महाराष्ट्र सरकार  क्या इन परिवारों  को कम से कम साल में सिर्फ दो दिन गणतंत्र दिवस और आजादी की सालगिरह के दिन ही सही  सम्मान देगी ? मध्य प्रदेश  में ऐसी परम्परा है। मैंने गत सितम्बर महीने में इमुंबई में कालानी  परिवार से भेंट की। हम   इतिहास  के पन्ने  पलटें  तो ज्ञात होगा कि  किस तरह ब्रिटिश सरकार ने युवा क्रन्तिकारी हेमू कालानी को 21   जनवरी    1943  को सिंध प्रान्त के सक्खर  कारावास  में फांसी पर लटका दिया था। तब हेमू की  आयु सिर्फ उन्नीस वर्ष थी। उस कालखण्ड को याद करते हुए हेमू के छोटे भाई श्री टेकचंद कालानी (बयासी बरस  ) और उनकी पत्नी श्रीमती कमला कालानी  बताते हैं कि   हेमू भैया बचपन से क्रांन्तिकारी गतिविधियों  में शामिल रहे।  इन कार्यो की घर पर  भी पूरी जानकारी  नहीं देते थे। वे शहीद  भगत सिंह की शहादत से छोटी उम्र से ही  प्रभावित थे। अंग्रेजों  के लिए मन में तीव्र क्रोध था जो अकसर  बातचीत में जाहिर होता था। एक दिन एक रेलगाड़ी  के  फौजी साजो सामान लिए  बलूचिस्तान के क्वेटा के लिए जाने की बात पता चलते ही हेमू कुछ साथियों  के साथ  रेलगाड़ी पलटने की योजना बनाकर घर से निकले। यह रेलगाड़ी 23  अक्टूबर 1942  को निकलनी थी ,तय समय पर साहसी देशभक्तों  की मण्डली चल पड़ी सर पर कफ़न बांधे।  उस दिन हेमू बहुत बैचैन थे।  गोरे  सत्ताईयों  के लिए नफरत का भाव था हेमू के मन में। अक्सर परिवार में भी उनकी ऐसी अभिव्यक्ति सुनने को मिलती रहती थी। उस दिन घटना को अंजाम देने के लिए चल पड़े देश के दीवाने। रेल पटरियों के पास पटरियां उखाड़ने के पहले एक सिपाही की नजर अचानक ही  इन देशप्रेमियों नौजवानों  पर पड़  जाती है । फिर मचता  है  सिपाहियों का  खूब शोर और दूसरे सिपाही भी तत्काल वहां आ पहुंचते हैं । श्री टेकचंद जी कुछ पल रूककर अपनी बात आगे बढ़ाते हैं।  वृतांत बताते उनकी आँखें  नम  हो जाती हैं। वे बताते हैं कि  सिपाही नजदीक आते हैं और हेमू अपने दोस्तों को वहां से निकल जाने का इशारा करते हैं। खुद अकेले ही खुद को सिपाहियों के हवाले कर देते हैं।   फिर हेमू  को  जेल में डाल  दिया जाता है । मुकदमा चलता है  और अंततःउन्हें मृत्यु दंड का फैसला सुनाया जाता है । कोर्ट के उस फैसले से हेमू  बिलकुल भी व्यथित नहीं थे। उनके आखिरी शब्द थे -आप लोग मेरी मौत पर रोना नहीं ,मैं पुनर्जन्म लूंगा ,हमारा देश जल्द ही आजाद हो रहा है। टेकचंद जी ने यह भी बताया कि  जेल में अनेक यातनाएं  सहने के बाद भी हेमू का वजन बढ़ गया था ,मतलब उनको नजदीक आ रही मौत की घड़ी  से लेश मात्र भी भय नहीं था। हेमू से जब कभी परिवार के लोग उसके विवाह की बात करते ,हेमू बात को टाल  देते ,कहते "करूँगा शादी और आप लोग देखना कि  कितने सारे लोग आएंगे मेरी शादी में। "  टेकचंद जी  यह बात बताते बहुत भावुक हो जाते हैं।  कुछ पल खामोश रहने के पश्चात टेकचंद जी कहते हैं "हम जीकर  भी हार गए ,भाऊ  मरकर भी अमर हो गए।"  कुछ  मिनिट के विराम के बाद आखिरी में टेकचंद जी कहते हैं हम गौरवान्वित हैं कि   देश में संसद सहित अनेक    शहरों  में हेमू की प्रतिमा स्थापित है ,उनके नाम पर संस्थाओं  के नाम भी रखे गए  हैं  और अनेक लोग घरों  में बच्चों  का नाम हेमू रखते हैं। हेमू को सदियाँ  याद रखेंगी। मुम्बई में  चेम्बूर में हेमू कालानी कालेज के संचालन  के साथ ही कालानी परिवार गरीब़ों को भोजन करवाने और आयुर्वेद के प्रचार जैसे काम कर रहा है . अनेक इतिहासकार और उस दौर के स्वतंत्रता सेनानी   बताते हैं जब  हेमू  को  जेल में डाल  दिया गया और उन पर ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ने का षड्यंत्र रचने का  मुकदमा चला और बाद  में फिर उन्हें जब फांसी देने का निर्णय सुनाया गया तब  भी  हेमू  तनिक भी विचलित  नहीं थे।  हेमू की अंतिम यात्रा में उनकी क़ुरबानी को सम्मान देते हुए  सक्खर  शहर  की सड़कें लोगो से पट  गई  थीं। उस दिन सिर्फ सड़कें   सिर्फ  स्वतंत्रता प्रेमियों से भरी हुईं  थीं. जब हेमू की अर्थी उठी तो मानो  शहीद की बारात चली हो ,जैसा हेमू  इसी अंतिम यात्रा को बारात की संज्ञा  देते हुए  अपनी भावनाएं व्यक्त किया  करते थे। आज हम ऐसे शहीदों  की बदौलत आजाद हैं। नेत्र नम  हो जाते हैं  ऐसे वीरों  को याद करते हुए। 
० अशोक मनवानी

Tuesday, January 12, 2016

एक सुनहरे दौर का चला जाना पच्चीस  दिसम्बर  के दिन सुबह ये खबर आई  कि  मुंबई में वरिष्ठ अदाकारा साधना जी नहीं रहीं।  एक पल को यकीन ही नहीं हुआ।  उन्हें कोई कैंसर नहीं था , जैसा अधिकांश टी वी चैनल बताते रहे।  मैं  साधना जी पर किताब लिखने के सिलसिले में उनसे जब भी मिला , भले कुछ क्षण मिले हों बातचीत के, हमेशा खुश और पॉजिटिव - ऊर्जा से ओत - प्रोत देखा। आम तौर  पर वे परिचित , निकट रिश्तेदारों  और खास प्रशंसकों से ही मिलती थीं। मैंने ट्रेन  से तुरंत भोपाल से  मुंबई रवाना होने का कार्यक्रम बना लिया , रिजर्वेशन न मिलने पर सोलह घंटे लम्बी बस यात्रा का विकल्प चुनना पड़ा।  शनिवार की सुबह  सांताक्रुज के राम कृष्ण  मार्ग के संगीता नामक  बंगले के ग्राउंड फ्लोर  बी - वन पहुँच गया। दिवंगत अभिनेत्री साधना जी के निवास पर सांताक्रुज इलाके में ऐसी भीड़ पहले कभी नहीं देखी  गई। साधना जी चूँकि कभी जनता के बीच नहीं आती थीं  इसलिए शायद उनके दीदार को तरसते उनके प्रशंसक बहुत   बेचैन और बेताब थे। व्यवस्था देख रही शाइना एन सी  और लोकल पुलिस किसी तरह उस हुजूम को समझाने  और उनके घर के भीतर आने से रोकने में लगे थे।  यहाँ  से ग्यारह बजे साधना जी की आखिरी यात्रा  निकली। अर्थी पर लेटी साधना जी का चेहरा उसी साधना कट हेयर स्टाइल के साथ दिखाई दिया , आँखों पर चश्मा चढ़ा था। एक जिंदगी  पूरी। एक अलग दुनिया की यात्रा के लिए तैयार।  देश - विदेश में जिसने हिंदी सिनेमा में लगातार अपनी विशेष स्थिति बनाकर  करोड़ों  प्रशंसक पैदा किए।  दस फैशन चलाए। सिर्फ साधना कट नहीं।  जान लीजिए नौ और फैशन  -  आँखों में तिरछा  काजल , शरारा , गरारा , टाइट और बिना बाहों वाला कुरता , चूड़ीदार सलवार या पायजामा , कानों में बड़े बाले , गले  में दुपट्टा ,   बालों  के आकर्षक जूड़े और सबसे खास उनकी सौम्य मुस्कान। याद दिलाएं आपको कि  एक मुसाफिर एक हसीना और वो कौन थी  जैसी फिल्मो की  लोकप्रियता का यह आलम था कि उस समय की  कॉलेज गर्ल्स  ने हंसना छोड़ दिया था , बस हल्की  मुस्कान चेहरों पर होती थी।  भारतीय सिनेमा का अहम दौर  रहा  साधना जी जैसी अभिनेत्रियों  की वजह से।  लता जी मानती हैं कि  साधना की तरह कई अहिन्दी भाषी अदाकाराओं का हिंदी  उच्चारण अद्भुत था।  राष्ट्रभाषा के लिए  उनका प्रेम प्रशंसनीय है। 
साधना जी के  शव वाहन  के पीछे गाड़ियों की लम्बी कतार  थी।  एक. दो टी वी चैनल्स  जो बता रहे थे की बॉलीवुड की कोई बड़ी हस्ती साधना जी के अंतिम दर्शन को नहीं पहुंची , यह असत्य था।  वेटेरन एक्टर संजय खान , संवाद लेखक निर्माता  सलीम खान ,  फिल्म इंतकाम और एक फूल दो माली में साधना जी के नायक रहे संजय खान ,  चरित्र अभिनेता   और साधना जी के  ख़ास प्रशंसक रजा  मुराद , काबिल गायक , द्घोषक , अभिनेता   अन्नू कपूर   प्रसिद्द कोरियोग्राफर  सरोज खान जिन्हें  पहली बार साधना जी ने गीता मेरा नाम फिल्म बनाने पर बतौर कोरियोग्राफर सम्मानित किया , पूर्व मिस इंडिया  पूनम चंदीरमानी  सिन्हा (  शत्रुघ्न  सिन्हा जी की पत्नी और पूर्व मिस इंडिया  ) साधना जी के नजदीकी श्री सुरेश लालवानी , रमेश सिप्पी जो पहले  बतौर  निज सहायक भी कुछ समय काम कर चुके हैं , आने- जाने वालों   से बात करते हुए सक्रिय  थे। इस बीच वेटेरन एक्ट्रेस और साधना जी की सहेली वहीदा रहमान और आशा पारेख जी भी आती  हैं - बेहद ग़मगीन थीं  दोनों।  मुझे  एक सिने प्रेमी  धर्मेन्द्र पाठक  भी मिले जो अहमदाबाद खास तौर  पर आए  थे , वे शांत और मायूस मेरे पास बैठे थे। मुंबई के ओशिवारा में जहां  हिन्दू शमशान भूमि  का बोर्ड लगा हुआ था,  शमशान घाट की बाऊन्ड्री  वॉल  के बाहर  ही टी वी वालों  ने ओबी वेन्स लगा रखी थीं। अंत्येष्टि की रस्म के लिए  रिश्तदारों में  साधना जी के दिवंगत पति आर के नैयर  के भाई केवल नैयर , भतीजी  गीता  साधना जी की शिमला निवासी ननद सोनिया , साधना जी के कसिन   विजय भावनानी उनके बेटे  यशीष  भावनानी मौजूद थे।  वहीं   जानी मानी उद्घोषिका तबस्सुम , करण  जौहर की माँ श्रीमती हीरू जौहर   लघु  फिल्म निर्माता टी मनवानी आनंद, बीते दौर की अभिनेत्री शम्मी , दीप्ति  नवल  आदि मौजूद थे। पंडित जी मन्त्र आदि पढ़े।  आधा घंटे के बाद  अपने दौर की इस विलक्षण अभिनेत्री का पार्थिव शरीर विद्युत  शव दाह  कक्ष में ले जाया जाता है।  सभी मौजूद लोगों  की आँखों से आसुंओ की धारा बह  निकलती है। बाद में साधना जी के  बंगले  पर  फिर से  हेलेन जी और सारिका और अन्य कई अभिनेत्रियों का आना- जाना लगा रहता है।  मैं नम आंखों से लौटता हूं । साधना जी के दौर को याद करते हुए । साधना जी को मरणोपरांत ही सही पद्म श्री या पद्म भूषण दिया जाना चाहिए। उनके अभिनय के क्षेत्र में  अप्रतिम योगदान और  नए प्रतिमान रचकर फिल्म उद्योग की दिशा बदलने के लिए। 
०अशोक मनवानी । 

Thursday, December 24, 2015

sadhna ji

Tuesday, December 15, 2015

              मास्टर चन्दर


·       15 दिसंबर 1907 को सिंध के ठारुशाह में जन्म .
·       पिता - श्री आसनदास जमींदार थे । बचपन से संगीत से लगाव रहा । उन्हें चाचाजी ने कलकत्ता से हारमोनियम खरीद कर   दिया ।
·        एक दिन संत कंवरराम जो महान गायक और समाजसुधारक थे, मास्टर चंदर की प्रस्तुति देखी और भविष्यवाणी की कि यह बालक एक दिन प्रख्यात गायक बनेगा ।
·        वर्ष 1932 में मास्टर चंदर का प्रथम रिकार्ड "" सुहिणा अर्ज आहे "" के नाम से आया ।
·       मास्टर चंदर ने जीवन में करीब 50 वर्ष गायकी को दिए । उन्होंने हिंदी और सिंधी फिल्मों में अभिनय भी किया । उन्होंने हिंदी फिल्म दिलारम और मौत का तूफान में अभिनय भी किया । बहुत कम होगों को जानकारी होगी फिल्म अछूत कन्या के लिए अभिनेत्री देविका रानी के अपोजिट मास्टर चंदर का चयन किया गया था  । बाद में यह भूमिका अशोक कुमार को मिल गई । मास्टर चंदर एक अच्छे कवि  और संगीत निर्देशक भी थे । उन्होंने उस दौर के प्रमुख गायकों भगत कंवरराम के अलावा स्वामी कुंदन , जीवन भाई अल्लाहरक्खी , भगत मोहन, जारोभगत आदि के साथ गायन किया । मास्टर चंदर बहुत लोकप्रिय रहे और उनके कुछ गीत तो आज भी ऐसे बच्चे गाते हुए मिलते हैं जिन्होंने न कभी मास्टर चंदर को देखा होगा न ही उनके अभिनय से परिचत होगा ।
      यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि एचएमवी कंपनी के इतिहास में 7 प्रतिशत की रायल्टी लेने वाले मास्टर चंदर प्रथम गायक थे वरना कंपनी ने किसी को 5 प्रतिशत से अधिक रायल्टी नहीं दी थी । मास्टर चंदर देश विभाजन के बाद मुम्बई में आ बसे । उन्होंने वर्ष 1955 में एक विशेष गायन कार्यक्रम भी प्रस्तुत  किया ।  अपने लोक प्रिय होने के कारण वे दो देशों के मध्य सेतु बने रहे । 1960 और 1970 के दशक में उन्होंने विश्व के कई देशों में प्रस्तुतियां दी । वर्ष 1984 की 3 नवंबर की तारीख को मास्टर चंदर ने आखिरी सांस ली । उनके दो बेटे महेश चंदर और गोप चंदर  भी गायन से बहुत सक्रियता से जुड़े । मास्टर चंदर की 9 पुस्तकें प्रकाशित हैं जो उनके संगीत गुरु काका जीवतराम   मटाई , शाह साहब संगीत और लोक संगीत और आध्यात्मिक विषयों पर आधारित हैं । एक नन्हीं बालिका की कहानी को उस दौर में गाकर मास्टर चंदर ने महिला सशक्तिकरण के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया जो बहुत दुर्लभ बात है । 

Friday, November 13, 2015

is diwali sirf ek phuljhadi jalayee.ek mitr ne chetaya ki pashu -pakshi bahut aahat hote hain in aawajo se.kuchh asar hota hai kisi ke kahne ka.

Saturday, November 7, 2015

वर्ष 1999 में सिंधी और 2014  में हिंदी कहानी संकलन। दोनों का नाम मौजूदगी। वही आवरण पृष्ठ। जयपुर में ख्यात सिंधी लेखकों  से करवाया था विमोचन। संयोग यह कि  पहले अजमेर में कथाकार श्री लखमी  खिलानी ने दादा कीरत बाबाणी  के साथ किया था विमोचन। प्रकाशक भी पुराने मित्र ज्ञान लालवाणी हैं। अधिकांश   पाठक जरूर अलग।