Thursday, December 24, 2015

sadhna ji

Tuesday, December 15, 2015

              मास्टर चन्दर


·       15 दिसंबर 1907 को सिंध के ठारुशाह में जन्म .
·       पिता - श्री आसनदास जमींदार थे । बचपन से संगीत से लगाव रहा । उन्हें चाचाजी ने कलकत्ता से हारमोनियम खरीद कर   दिया ।
·        एक दिन संत कंवरराम जो महान गायक और समाजसुधारक थे, मास्टर चंदर की प्रस्तुति देखी और भविष्यवाणी की कि यह बालक एक दिन प्रख्यात गायक बनेगा ।
·        वर्ष 1932 में मास्टर चंदर का प्रथम रिकार्ड "" सुहिणा अर्ज आहे "" के नाम से आया ।
·       मास्टर चंदर ने जीवन में करीब 50 वर्ष गायकी को दिए । उन्होंने हिंदी और सिंधी फिल्मों में अभिनय भी किया । उन्होंने हिंदी फिल्म दिलारम और मौत का तूफान में अभिनय भी किया । बहुत कम होगों को जानकारी होगी फिल्म अछूत कन्या के लिए अभिनेत्री देविका रानी के अपोजिट मास्टर चंदर का चयन किया गया था  । बाद में यह भूमिका अशोक कुमार को मिल गई । मास्टर चंदर एक अच्छे कवि  और संगीत निर्देशक भी थे । उन्होंने उस दौर के प्रमुख गायकों भगत कंवरराम के अलावा स्वामी कुंदन , जीवन भाई अल्लाहरक्खी , भगत मोहन, जारोभगत आदि के साथ गायन किया । मास्टर चंदर बहुत लोकप्रिय रहे और उनके कुछ गीत तो आज भी ऐसे बच्चे गाते हुए मिलते हैं जिन्होंने न कभी मास्टर चंदर को देखा होगा न ही उनके अभिनय से परिचत होगा ।
      यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि एचएमवी कंपनी के इतिहास में 7 प्रतिशत की रायल्टी लेने वाले मास्टर चंदर प्रथम गायक थे वरना कंपनी ने किसी को 5 प्रतिशत से अधिक रायल्टी नहीं दी थी । मास्टर चंदर देश विभाजन के बाद मुम्बई में आ बसे । उन्होंने वर्ष 1955 में एक विशेष गायन कार्यक्रम भी प्रस्तुत  किया ।  अपने लोक प्रिय होने के कारण वे दो देशों के मध्य सेतु बने रहे । 1960 और 1970 के दशक में उन्होंने विश्व के कई देशों में प्रस्तुतियां दी । वर्ष 1984 की 3 नवंबर की तारीख को मास्टर चंदर ने आखिरी सांस ली । उनके दो बेटे महेश चंदर और गोप चंदर  भी गायन से बहुत सक्रियता से जुड़े । मास्टर चंदर की 9 पुस्तकें प्रकाशित हैं जो उनके संगीत गुरु काका जीवतराम   मटाई , शाह साहब संगीत और लोक संगीत और आध्यात्मिक विषयों पर आधारित हैं । एक नन्हीं बालिका की कहानी को उस दौर में गाकर मास्टर चंदर ने महिला सशक्तिकरण के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया जो बहुत दुर्लभ बात है । 

Friday, November 13, 2015

is diwali sirf ek phuljhadi jalayee.ek mitr ne chetaya ki pashu -pakshi bahut aahat hote hain in aawajo se.kuchh asar hota hai kisi ke kahne ka.

Saturday, November 7, 2015

वर्ष 1999 में सिंधी और 2014  में हिंदी कहानी संकलन। दोनों का नाम मौजूदगी। वही आवरण पृष्ठ। जयपुर में ख्यात सिंधी लेखकों  से करवाया था विमोचन। संयोग यह कि  पहले अजमेर में कथाकार श्री लखमी  खिलानी ने दादा कीरत बाबाणी  के साथ किया था विमोचन। प्रकाशक भी पुराने मित्र ज्ञान लालवाणी हैं। अधिकांश   पाठक जरूर अलग। 

Friday, November 6, 2015

मुंशी प्रेमचंद जयंती पर एक कार्यक्रम में लमही जाना हुआ जो बनारस शहर से लगा हुआ गांव  है .report
 डॉ नारायण  सामताणी जी बनारस में रहते हैं। कुछ माह पहले भेंट हुई। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में बौद्ध अध्ययन विभाग से सेवानृवित्त  हैं। उन्होंने  संस्कृत को  पाली से अलग किया। अलग विभाग बना। आज भी 93  की आयु में मस्तिष्क गतिमान है। दादा को अमेरिका से आमंत्रण आते हैं। व्याख्यान और शोध निर्देशन के लिए.



डॉ नारायण सामताणी के साथ    बनारस में एक मुलाकात की तस्वीर 
31  जुलाई 2015





















 हार्दिक शुभकामनाएं। 

Tuesday, October 13, 2015

माउंटनमैन  मांझी  की भावना
नवरात्रि  पर्व  पर अनेक प्रख्यात मंदिर जनता की श्रद्धा के केंद्र होते हैं। यहाँ इंतजाम भी जरुरी हो जाते हैं , खासकर जब पहले  कोई  हादसा हुआ हो , तब प्रशासन की पहली प्राथमिकता  यही होती है कि श्रद्धालुओं को तकलीफ न हो , ऐसी व्यवस्थाएं कर ली जाएँ। दतिया जिले के रतनगढ़  में बहुत कम समय में प्रशासन ने रास्ता चौड़ा और सुविधाजनक बनवाने में कामयाबी हासिल की है। यह कहना शायद अतिश्योक्ति हो  लेकिन सच भी है कि यह काम लगभग उसी तरह का है जिस तरह अकेले मांझी ने बिहार में आम जन  की सहूलियत के लिए बरसों  पहले अपनी मेहनत  से  सुगम मार्ग निर्मित कर लिया था।  भले प्रशासन की इतनी तारीफ करना किसी को उचित न लगे लेकिन   यह तो कह ही सकते हैं   कि आज सभी साधनों  का इस्तेमाल कर प्रशासन ने  माउंटनमैन  मांझी  की भावना से काम किया है। मैंने कल (12 october 2015 ) रतनगढ़ जाकर  माता के दर पर माथा टेका और साक्षी बना  शानदार इंतजामों का ।  0 अशोक मनवानी 

Tuesday, September 29, 2015

लघुकथाचमक

उन्होंने प्रोविडेंट फंड की पूरी राशि निकालकर ,बैंक लोन का पैसा मिलाकर बड़े जतन से मकान बनवाया .मकान के शुभारम्भ के दिन तक वे परिवार के सदस्यों और नौकरों -चाकरों
के साथ नए मकान की दीवारों ,खिडकियों और दरवाजों को चमकाते रहे।
हालाँकि छह साल लगातार चले मकान के काम के कारण उनके चेहरे की चमक चली गयी थी।
अशोक मनवानी
लघु कथा 

बुक शेल्फ 
घर में लंबी -चौड़ी बुक शेल्फऔर उसमे सजी किताबें देखकर आगंतुक हैरत करते ,क्या कमाल की बात है ,इतनी क़िताबे ?सच आपने गजब की लाइब्रेरी बनाई है,रोज पढ़ते होंगे ?
घर मालिक जवाब देते हैं - अरे नहीं भाई,इतना समय किसको है ? दरअसल यह इन्टीरियर डेकोरेशन के लिए बहुत उपयोगी वस्तु है .पढ़ने के लिए कौन वक्त गँवाए ? आप मेरी व्यस्तता जानते ही हैं।ये लाभ जरुर है कि बुक शेल्फ देखने वाले बढ़िया आतंकित हो जाते हैं।
मिथ्या -मंजिल -2005
लघुकथा
वेलकम -वेलकम
बात -बात में ओढ़ी हुई विनम्रता के साथ भैया जी "वेलकम -वेलकम "कहने के आदी थे. 
किसी भी जगह ,किसी भी मौके पर मित्रो से मिलते ही वे पूरी ताकत लगा कर हाथ मिलाते और आदत के मुताबिक़ कहते थे "वेलकम -वेलकम .
आईये सर स्वागत है आपका "
भैया जी से आज गलती यह हो गयी ,उन्होंने विश्राम घाट में शोकाकुल परिवार के एक व्यक्ति को ही यह तकिया कलाम सूना दिया ,वह भी एक बार नहीं ,तीन -चार बार .एक साथ 4 - 6 लोगो ने उनकी इस हरकत के लिए उन्हें खूब खरी -खोटी सुनायी और उपदेश सुनाये सो अलग. गनीमत थी ,भैया जी की बस धुनाई नहीं हुई,लेकिन आज उन्हें इतना अहसास हो गया ,हर जगह नहीं बोलना चाहिए इस तरह -
"वेलकम- वेलकम."
( लघु कथा संग्रह मिथ्या -मंजिल से ,प्रकाशन वर्ष -2005)
लघु कथा 
स्वदेशी अभियान 
शहर के अनेक समाजसेवी आज एक पांच सितारा होटल में मिले। आज का विषय था -खाना खाने के पहले कोई संकल्प भी लिया जाये।अनेक सामाजिक कुरीतियों पर बातचीत हुई। तय यह हुआ कि अब कोई नया विषय चुना जाए। विदेशी वस्तुओ के अधिक इस्तेमाल से शुरू बहस का समापन इस फैसले से हुआ कि आने वाला महीना स्वदेशी अभियान को समर्पित हो और जोर- शोर से यह अभियान संचालित किया जाये। शुद्ध स्वदेशी का प्रचार- प्रसार हो । बस फिर क्या था -अगले हफ्ते होने वाली पार्टी का स्थान एक वनवासी इलाके का पारंपरिक रेस्ट हाउस था। दारू भी देसी थी और मुर्गा भी देसी। समाजसेवियों ने स्वदेशी को ही अपनाया।
लेखक -अशोक मनवानी
आगामी वर्ष से सप्रे संग्रहालय में होगा स्व देवलिया स्मृति आयोजन
स्मृति ग्रन्थ का प्रकाशन भी होगा 

गोष्ठी में समकालीन पत्रकार,मित्र ,शिष्य और प्रशंसक एकत्र हुए 


भोपाल 27 नवम्बर 2012/स्वराज भवन सभागार में सोमवार को स्व भुवन भूषण देवलिया की 21 वी पुण्यतिथि पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का स्मरण किया गया .अनेक वक्ताओ ने देवलिया जी के मानवीय गुणों और पत्रकारीय प्रतिबध्ताओ को याद किया। इस अवसर पर निर्णय लिया गया कि स्व देवलिया (1937-1991)
के योगदान को रेखांकित करने वाले ग्रन्थ का प्रकाशन शीघ्र किया जायेगा। वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री विजय दत्त श्रीधर ने कहा कि आने वाले वर्ष से माधव राव सप्रे संग्रहालय में स्व देवलिया स्मृति आयोजन होगा। उल्लेखनीय है कि देवलिया जी मध्य प्रदेश आंचलिक पत्रकार संघ के प्रथम अध्यक्ष भी रहे हैं। पत्रकारिता से जुड़े ऐसे लोग जिन्होंने राष्ट्रीय सरोकारों से गहरा वास्ता रखते हुए कई नौजवान कलमकारों को प्रेरित ,प्रोत्साहित करने का अनूठा कार्य किया,उनमे स्वर्गीय भुवन भूषण देवलिया का नाम बेहद सम्मान से लिया जाता है। सागर में रहकर देवलिया जी ने जहाँ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के प्राध्यापक रहते हुए विद्यार्थियों को शिक्षित -दीक्षित किया वहीं देशबन्धु ,यूनीवार्ता ,आकाशवाणी और अन्य अनेक संस्थानों को सेवाएँ प्रदान की।उनकी पुण्यतिथि 26 नवम्बर पर अनेक वक्ताओ ने उन्हें श्रधा सुमन अर्पित किए .प्रमुख रूप से राष्ट्रीय एकता परिषद् के उपाध्यक्ष श्री रमेश शर्मा ,श्री राजेश सिरोठिया ,पुष्पेन्द्रपाल सिंह,सुश्री दविंदर कौर उप्पल ,अजय त्रिपाठी, आलोक सिंघई,रामशरण पाराशर ,प्रशांत जैन,प्रदीप पाठक ने यादे ताजा की . आयोजन में श्री पलाश सुरजन ,श्री चंद्रहास शुक्ल ,श्री सतीश एलिया , डॉ अर्पणा ,स्व देवलिया की धर्म पत्नी श्रीमती कीर्ति देवलिया,पुत्र आशीष देवलिया,अरुणा दुबे ,बी के दुबे और देवलिया परिवार के अनेक सदस्य मौजूद रहे। nov.2012

Monday, September 28, 2015

लता होने का अर्थ


86  वीं जन्म वर्षगांठ   28 sept. 2015
                                                                                                                                                    
मध्य प्रदेश के इंदौर में 28 सितम्बर 1929  को जन्मी हिन्दी फ़िल्मों की मशहूर पार्श्वगायिका  लता मंगेशकर   ने फिल्मी और गैर फिल्मी मिलाकर   हजारों  गीत  गाये हैं.इनकी आवाज़ के प्रशंसक पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। लता जी की विशेषता है कि इन्होंने शास्त्रीय संगीत, गजल और पॉप संगीत हर क्षेत्र में अपनी आवाज़ का जादू बिखेरा है और एक समान सफलता पाई है।
 हिंदी सिनेमा  के अनेक लोकप्रिय  गीतों के लिए लता  जी को जाना जाता है. इन गीतों में   -तेरे सुर और मेरे गीत …. ,घर आया मेरा परदेसी … , यूं  हसरतों के दाग … ,ये जिन्दगी उसी की है … ,धीरे धीरे मचल  ऐ  दिले … ,ना कोई उमंग है … ,ओ मेरे सनम ओ मेरे सनम … ,आज हम अपनी दुआओं  का असर … ,दिल अपना और प्रीत परायी … ,लाख छुपाओ छुप न सकेगा … ,ये हरियाली और ये रास्ता … , ढूंढो  ढूंढो  रे साजना ….  झिलमिल  सितारों  का आंगन होगा … ,मुझको इस रात  की तन्हाई में आवाज न दो … फूल तुम्हें  भेजा  है ख़त में … ,मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम … तू जहाँ -जहाँ चलेगा … आएगा ,आएगा … आने वाला   … ,मोहब्बत की झूठी कहानी पर … जाने क्यों लोग मोहब्बत किया … जोत से जोत जगाते … ,हवा में उड़ता जाये … हँसता हुआ नूरानी चेहरा … ,जिन्दगी भर नहीं भूलेंगे … मोहे भूल गए सांवरिया … ज्योति कलश  छलके … नगरी नगरी … गाता  जाये  बंजारा …. कहीं  दीप  जले कहीं दिल … ओ सजना बरखा बहार आई … लो आ गयी उनकी याद … मेरा दिल ये पुकारे … ,दिल तड़फ तड़फ के कह रहा … अजीब दास्ताँ है ये … हमने देखी  है इन आँखों की महकती खुशबू  … शामिल हैं .
                                   लता मंगेशकर  जी नई सदी में नई  ताजगी से आती हैं।  हल ही में उन्होंने एक पंजाबी एल्बम के लिए गाया  है। कुछ बरस पहले फिल्म पेज थ्री के लिए गाया गया  उनका एक सुमधुर गीत -"कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पर …. " यह सिद्ध करता है कि  बढ़ती आयु का उनके गायन पर कोई अधिक प्रभाव नहीं पड़ा।  भारतीय सिनेमा की एक सदी पूरी होने पर भी उनका मन उल्लास से भर उठता है और वे  गीत गाने के  अनुरोध ठुकरा नहीं पातीं . एक तरफ हम देखते हैं कि  अभिनय से जुड़ी  वे अनेक नायिकाएं जिनके लिए ताई ने गाया ,अब जिन्दगी को अपने घर की चार दीवारी  में समेट  चुकी  हैं ,लेकिन लता जी कर्म में यकीन रखते हुए अपनी आराधना  में तल्लीन  हैं . आज भी मानो  वे गा  रही हों -अल्लाह तेरो नाम ,ईश्वर तेरो नाम … या फिर प्रभु तेरो नाम ,जो ध्याये ,फल पाये …. लता जी सर्वाधिक गीत गाने वाली गायिका और सबसे अधिक भाषाओ  में गाने का रिकॉर्ड बना चुकी हैं। यह कितनी सुखद और संतोष देने वाली बात है कि  उनका जज्बा कायम है.                                          
  चार -पांच  दशक तक लगातार हिंदी सिनेमा के लिए पार्श्व गायन कर अलग पहचान बनाने वाली प्रसिद्द पार्श्व गायिका लता जी के   लिए गाना एक इबादत है . इसलिए वे जब गीत गाती  हैं तब मन से एकाग्र  और सिर्फ अपने गायन  पर ध्यान देती हैं।  अपने पिता दीना नाथ मंगेशकर  का दिया आशीर्वाद  उनके साथ रहता है।  लता जी ने  ने गायन के लिए शब्दों के सही  उच्चारण  के लिए अनेक भारतीय  भाषाओ  में खुद को जानकार और  पारंगत बनाया . उन्होंने बंगाली , पंजाबी ,उर्दू ,सिंधी ,गुजराती  और मराठी भाषाओं  की तालीम भी  हासिल की .
                                                      इंदौर में  एक  अनोखा म्यूजियम भी है लता जी के नाम 
                   इंदौर शहर से कुछ दूरी पर पिगडम्बर  ग्राम में लता दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफोन रिकॉर्ड संग्रहालय  को श्री सुमन चौरसिया जी ने आकर्षक शक्ल                         देकर संजोया  है  लता जी के गाये गीतों के सभी रिकार्ड्स से ,बहुत से रिकॉर्ड तो  दुर्लभ   श्रेणी के हैं।  यहाँ अनेक पुस्तकें भी संग्रहीत हैं।  चौरसिया परिवार की संगीत के प्रति आत्मीय अभिरुचि का प्रतीक है ये संग्रहालय। यहाँ फिल्म लेखक , गीतकार , संगीतकार ,कलाकार आदि अक्सर  आते रहते हैं। यह एक शोध केंद्र भी बन चुका  है।   लता ज के साथ ही आशा भोसले जी और हृदयनाथ  मंगेशकर भी इस संग्रहालय को बहुत पसंद करते है. लता   जी खास अवसरों पर विशिष्ट  समारोहों के लिए  भी गाती  रही हैं . लेकिन अभी मध्य प्रदेश के स्थापना दिवस  समारोह में उनके स्वर गूंजना  बाकी  हैं । दरअसल  यह मध्य प्रदेश वासियों  के लिए एक विशेष अवसर होगा जब वे  ऐसे कार्यक्रम में उन्हें मौजूद पाएंगे। लता जी   को  मध्य  प्रदेश के लोगों  की भावना का  सम्मान करते हुए अब एक बार सार्वजानिक गायन के लिए अपने मध्य प्रदेश की धरती पर आ जाना चाहिए।  लता   जी   अपने गीत- गायन में शास्त्रीय शैली को अपनाने  के साथ - साथ  विशेष अंदाज में गाने वाली गायिका  मानी  जाती हैं और वे  अनेक  भाषाओ  में गाने का रिकॉर्ड बना चुकी हैं।  इस अवस्था में भी उनका जज्बा कायम है.लता   जी के   प्रति न सिर्फ करोड़ों  गीत -संगीत  प्रेमियों बल्कि आम लोगों  के मन में एक समर्पित गायिका ही नहीं एक आत्मनिर्भर , स्वाभिमानी भारतीय स्त्री की छवि के साथ विशेष  आदर भाव है. लता जी की बहन आशा जी को सुनने आए  नागरिक तब बहुत खुश हो गए थे जब उन्होंने भोपाल के कुदरती सौंदर्य के साथ ही इंदौर की तारीफ के पुल  बांधे और वहाँ  के  सराफा बाजार के व्यंजनों की  खास तौर  पर तारीफ की। चूँकि  लता जी का जन्म इंदौर का है ,इसलिए लता जी का मध्य प्रदेश में काफी आदर किया जाता है लेकिन   लता जी के साथ  ही उनकी छोटी बहन के नाते आशा जी को भी  मध्य प्रदेश के  नागरिक  बहुत   सम्मानीय मानते  हैं  . मध्य प्रदेश  के बाशिंदे  लता जी और आशा जी  सहित उनकी और बहनों  उषा जी , मीना  जी और भाई हृदयनाथ मंगेशकर   के लिए सेहतमंद बने रहने और सवा सौ साल जीने की कामना  करते हैं.
यह दिली इच्छा है लोगों की कि लता  जी  एक बार आएं  और अपने   प्रदेश  में गायें ।          यह आशा जी  और  लता जी के लिए और मध्य प्रदेश  के लिए बहुत अच्छा होगा और स्मरणीय भी  रहेगा  यदि दोनों बहनें  मध्य प्रदेश के और  नजदीक आ जाएँ। ऐसा लगता है मध्य प्रदेश लता जी को अब उतना आकर्षित नहीं कर पा  रहा।  शायद वे बच्चों  की तरह किसी छोटी सी बात पर अपने ही घर के सदस्यों से रूठ  गई  हैं।  यह कितना सुखद होगा कि    लता ताई मध्य प्रदेश आयें और यहा मन से  गीत गायें। मध्य प्रदेश के स्थापना दिवस के भव्य समारोह में जब तघन साल पहले आशा भोसले जी आ सकती हैं  तब  लता जी भी अपने जन्म प्रदेश में पधारें , यह लाखों -लाख लोगों  की ख्वाहिश है। वैसे भी घर की बुआ  या किसी बुजुर्ग का इस तरह  खामोश रहना ठीक नहीं।  इस दिशा में अब सामाजिक स्तर  पर ठोस पहल होना चाहिए। कोई असंभव नहीं कि  लता जी और  आशा जी के साथ एक मंच पर  ,मध्य प्रदेश आकर गायें। बस हमारा आत्मीय आग्रह हो और उन्हें ससम्मान आमंत्रित किया जाये ,इसकी जरुरत है। आशा जी  और  लता ताई ,भारत या एशिया की धरोहर  नहीं  बल्कि  विश्व स्तरीय  शख्सियत हैं। ये शब्द गीतकार हसरत जयपुरी के हैं  लेकिन  मानो  मध्य प्रदेश के लोग किसी बात पर  अपनों से ही रूठी  लता जी के लिए कह रहे हों - अजी  रूठकर अब कहाँ  जाईएगा , जहाँ जाईयेगा ,हमें  पाईयेगा..... लता जी  मध्य प्रदेश की इस धरती पर जरूर जल्द आएँगी और गाएंगी ,ये उनके चाहने वालों  का यकीन है ।  lataa ji birth day
28 september 2015

Saturday, September 26, 2015

विश्व हिंदी सम्मेलन के अवसर पर लेख में उल्लेख....
स्वर कोकिला के नाम पर अनूठा संग्रहालय है उनकी जन्म स्थली इंदौर में । कभी देखिए जरूर ।


चंडीगढ़ के लेखक श्री एस पी सिंह कब मेरे अजीज दोस्त बन गए ,पता नहीं चला।उनके आत्मीय आमंत्रण [पर पहुंचा था मैं। सिर्फ एक समानता कि दोनों ने अभिनेत्री साधना पर लिखा है , इस रविवार एस पी साहब की पुस्तक पर चर्चा गोष्ठी में शामिल होने का अवसर मिला। शहर की जो तारीफ सुनी थी उससे भी बेहतर महसूस किया , वहां अभी हल्की ठण्ड शुरू हो गई है , आने वाले dec. महीने में क्रिसमस और नए साल का जश्न रहेगा ,फिर जनवरी में चंडीगढ़ कार्निवाल जिसका सभी को इन्तजार रहता है। इसके बाद फ़रवरी में रोज़फेस्टिवल की धूम रहेगी। एक जिन्दा शहर। क़ला और साहित्य से गहरा सरोकार रखने वाले शख्स कई मिले जिनमें ना केवल साहित्य अकादमी के सचिव माधव जी ,दूरदर्शन के निर्देशक रत्तू साहब और तो और खाद्य मंत्री आदेश प्रताप सिंह कैरों भी शामिल हैं। इन सभी से खूब बातें हुईं। शहर की खामोश झील भी बहुत कुछ कहती नजर आई. रॉक गार्डन देखने का अपना अलग आनंद है.
चंडीगढ़ जो कभी मेरे लिए शहर था , अब एक याद है। 28 october 2014 

Friday, September 25, 2015

स्वतंत्रता आंदोलन में सिंध का महत्वपूर्ण योगदान
 जब अखंड भारत था ,सिंध प्रान्त अफगानिस्तान  और अरब के नजदीक सीमा पर स्थित होने के कारन आक्रामकों का निशाना रहा। सिंध पर राजा डाहर  के कुछ गद्दारों  की वजह से मुगलो ने कब्ज़ा किया जो कई सदियों तक रहा ,फिर अंग्रेज  जमे रहे। वर्ष 712  से लेकर 1947  तक हम गुलाम रहे। इस बीच पूरे देश की तरह सिंध प्रदेश भी आजादी के आंदोलन का अहम कार्य क्षेत्र रहा। 
                                   एक अखबार के आठ संपादकों  को कारावास 
 सिंध के एक अख़बार हिन्दू के एक के बाद एक करके आठ समपादको को जेल में बंद किया गया क्योंकि वे ब्रिटिश सत्ता का सीधा विरोध करते थे।  प्रमुख रूप से हरकिशन गुरदासमल , नाथूराम शर्मा , मंघाराम लुल्ला , नेनूराम शर्मा , हसाराम  पमनानी, नारायणदेव आर्य  सीतलदास भेरुमल , भगत कंवरराम  ऐसे सेनानी हैं जिन्होंने  राष्ट्र रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। भारतीय सेना में  वायु और जल सेनाध्यक्ष एडमिरल तहलियानी साहस  के कारण  जाने गए। मुंबई में लेखक और क्रांतिकारी  कीरत बाबानी जिनकी आयु 91  वर्ष है सिंधु संस्कार को पूर्व में एक विशेष साक्षात्कार में आजादी की मुहीम में सिंधी भाइयो के योगदान के बारे में विस्तार से बता चुके  हैं।  0 अशोक मनवानी ( ब्लॉग बातें -मुलाकातें  ) 2013

Thursday, September 24, 2015

सागर के मोती 
कार्यक्रम बहुत होते हैं , स्थायी याद  कम कार्यक्रमों  की बन पाती  है . हर साल  भाई राजेश सागर बुलाता था ,कार्यक्रम का नाम होता -हंगामा -2011 ,हंगामा -2013 .. मैंने कहा जब यह नाम  बदलोगे ,आ जाऊँगा ,सो इस साल भाई मान गया (शायद बे-मन से ) मैंने एफ बी  और ई मेल से आये आमन्त्रण  पत्र पर,फिर से चेक करने की  आदत के मुताबिक  दोबारा  नजर डाली ,भाषा ठीक  थी ,कार्ड का आकल्पन  भी जमा ,फिर अपन ने सागर की  ट्रेन  पकड़ ली , रविन्द्र  भवन ,सागर पूरा भरा था . कार्यक्रम संचालन  का दारोमदार   छोटे भाई विजय ने सम्हाला , जानी -मानी  एंकर भोपाल की मेघा ठाकुर के साथ . बात कुछ जम  ही गई ... बच्चे ,किशोर  नए गीतों  पर नाचे  और घंटों गाते रहे ,ये तो ठीक रहा पर  एक बात ने मन को बहुत खुश किया -कार्यक्रम के बीच दो प्रतिभागियों के मध्य  लगने वाले समय का रचनात्मक उपयोग, वो भी सागर की शान बढ़ाने वालो के नामोल्लेख के साथ . विजय ने लम्बी श्रृंखला चला दी -मुझे गर्व है उस सागर पर जिसने डॉ हरिसिंह गौर जैसा दानवीर पैदा किया , सागर झील का निर्माता लाखा बंजारा ,ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी जैसा सेनानी ,भाई अब्दुल गनी  जैसा देशभक्त  पत्रकार ,गीतकार विट्ठल भाई पटेल .... कितने ही  शख्स याद किये गए ---भुवन भूषन देवलिया ,कवि  पदमाकर ,त्रिलोचन जी ,रमेश दत्त दुबे ,विजया राजे सिंधिया ,दादा डालचंद जैन ,गोवा  मुक्ति आंदोलन की  योद्धा  सहोदरा  राय ,अभिनेता गोविन्द नामदेव,संगीत साधक ओमप्रकाश चौरसिया ,हर्ष चतुर्वेदी ,रघु ठाकुर ,मुंशी प्रेमचंद की इकलौती  बेटी कमला देवी ...  मानो भावनाओं  का सागर उमड़ पड़ा हो … अपनी जमीन और जनता से जुड़े 50  से अधिक बेमिसाल लोगों की  याद ,बेहद श्रृद्धा  के साथ . और अतिथियों  के साथ ख्यात लोक नृत्य और कला निर्देशक (मेरे गुरु भी ) विष्णु पाठक जी भी मौजूद थे इन लम्हों  के . बधाई मेरे भाई राजेश मनवानी . 
 ( 9th feb 2014  को लिखा सागर में आयोजित कार्यक्रम का अनुभव )

ma pitambara peeth

मध्यप्रदेश के आध्यात्मिक, धार्मिक और साहित्यिक गतिविधियों के केंद्र दतिया में कुछ ऐसे शख्स हैं जो इस अंचल की पहचान बन गए हैं । मां पीताम्बरा के उपासक और प्रसिद्ध पीताम्बरा पीठ के साधक डॉ हरिसिंह" हरीश "लगभग दो दर्जन कृतियों के सृजक । डॉ हरीश ने पद्य लेखन में सतत साधना की है । जब कभी मैं दतिया जाता हूं डॉ हरीश से मेरी भेंट हो ही जाती है । इस बार जब मां पीताम्बरा मंदिर से बाहर निकल रहा था, डॉ हरीश सामने आते दिखे, चाल में वही उत्साह, उनके चेहरे पर झुर्रियां हल्की ही है । कोई निराशा नहीं, कोई उदासी नहीं, प्रफुल्लित मन से उन्होंने स्वागत किया । बोले - "इस बार तो मेरे घर चलना ही होगा, साथ चाय पिएंगे, कुछ गपशप करेंगे । " और हम दोनों मंदिर से चल पड़े- पैदल-पैदल ,गांधी मार्ग स्थित नया दरवाजा की ओर ...। डॉ हरीश ने बताया नाम नया दरवाजा है, है वो प्राचीन ही । शहर का केंद्र स्थल । पास ही चौराहे के एक तरफ एक बड़ा होर्डिंग लगा है जिस पर लिखा है-" उड़ान भरता दतिया ।" बुजुर्ग साहित्यकार ने बताया ‍- "चार -पांच साल से दतिया कस्बे ने एक विकसित हो रहे शहर में खुद को बदल दिया है ।"  डॉ हरीश ने घर का नामकरण भी किया है । सुमन साहित्य सदन । घर पुराने तरह का है । छोटे से आंगन(जहां तुलसी जी चबूतरे में शोभायमान हैं)से होकर हम डॉ हरीश के बैठक कक्ष में पहुंचे । गाहे-बगाहे इसी हाल-नुमा कक्ष में साहित्यिक गोष्ठियां भी वे करते रहते हैं । यहां अलमारियों में उत्कृष्ट हिंदी साहित्य संग्रहित है । 
डॉ हरीश की पुस्तकों में प्रमुख हैं :-सप्तशिखा, उलाहना, बच्चों पढ़ने जाओ रोज, शुभम, मानवता का बगीचा, दतिया काव्य धारा, श्री गुरु मां चरणों की धूल, बच्चों की मीठी मुस्कान, उन्मेष, गम लेके फूल दिए , काव्यांजलि, दायरा, सनद, मेरा खत न मिलने पर, कली भंवरे और कांटे, दर्द की सीढ़ियां ।
जिस तरह साहित्य और सिनेमा का गहरा संबंध है, उसी तरह डॉ हरीश भी मधुबाला, वहीदा रहमान और साधना जैसी अभिनेत्रियों से लगाव रखते हैं । डॉ हरीश ने फिल्म पत्रिका माधुरी के अनेक पुराने अंक संजोकर रखे हैं । मुझे डॉ हरीश से मुलाकात और बातचीत के बाद सबसे सुखद यह बात लगी कि आयु उनकी रचनात्मकता में कहीं बाधा नहीं है। 

Wednesday, September 23, 2015



. हिंदी को हिन्दुतानी बनाकर ही लहरा सकेंगे  
 पताका 
  0 अशोक मनवानी
     हाल ही में भोपाल में हिंदी सम्मेलन का विश्व स्तरीय आयोजन हुआ है।हिंदी के संबंध में बहुत विस्तार  से चर्चा हुई।सार्थक संवाद में शामिल प्रतिनिधि इस विषय पर भी बातचीत करते नजर आए कि यदि हिंदी में यदि सीमित  संख्या में और आवश्यकता के मुताबिक अन्य भाषाओं  के शब्दों  का समावेश हो तो यह हिंदी की ख्याति बढ़ाने में सहयोगी होगा। इससे हिंदी और मजबूत और लोकप्रिय होगी। क्या आप टेबिल , पेन  को आज मेज या कलम कहते हैं, जवाब है , नहीं।  तो फिर इसकी वकालत क्यों होना चाहिए कि  हिंदी शुद्ध  रहे। क्या हिंदी की पवित्रता को अन्य भाषाओं  से कोई खतरा है ? उत्तर है - बिलकुल कोई खतरा नहीं है।  दूसरे  शब्द हिंदी की प्रतिष्ठा में वृद्धि ही करेंगे।  मेरा भी यही मानना है कि  क्या बाइक का उपयोग  अधिक अच्छा नहीं फटफटी से। क्या वाशरूम बेहतर नहीं बाथरूम से। बाथरूम  तब जाते हैं जब लघुशंका के लिए जाना हो, यह प्रयोग भी गलत ही होता रहा है बरसों से ।  यदि समय के साथ सभ्यताएं बदलती हैं तब भाषा के परिवर्तन स्वीकार्य क्यों न  हों। हमारे देश की राजभाषा और राष्ट्रभाषा देश की लगभग आधी आबादी की मातृभाषा भी है । वैधानिक प्रावधानों के बाद भी केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग की अनिवार्यता को लागू नहीं किया जा सका है । कहने को राजभाषा के समर्थन में खूब नारे लगाए जाते हैं । इस रस्मी कार्यवाही में राजभाषा प्रेमियों का उत्साह देखते ही बनता है । अफसोस तब होता है जब इस उत्साह की बिदाई होती है ।  हर साल सितंबर महीने में उमड़ी भावना अक्टूबर महीना शुरु होते ही दफन हो जाती है । नमस्कार की जगह फिर हलो-हाय शुरु हो जाती है । दफ्तरी कार्यो से लेकर बोलचाल तक पूरा वातावरण अंग्रेजी मय हो जाता है । ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी विवशता के कारण महीना-पंद्रह दिन हिंदी में बातचीत और कार्य करने की जहमत उठानी पड़ी हो । हास्यास्पद यह है कि इस प्रक्रिया में शामिल लोग शुद्ध हिंदी की वकालत  बहुत जोर शोर से करते हैं और फिर बाद में अंग्रेजी के गुलाम बन जाते हैं। इससे अच्छा है ऐसे भाषाई  कट्टरवाद फैलाने की बजाय सर्वमान्य हिंदी के पक्ष में कार्य किया जाए। भारतीय भाषाओं  का उद्गम संस्कृत  से हुआ।  यदि हिंदी को समृद्ध बनाने वाले शब्द इन  भारतीय भाषाओं  से लिए जाएँ तो कोई अनुचित नहीं। गुजराती  का कोई वांदा नहीं मतलब कोई चिंता की बात नहीं , मध्य प्रदेश , राजस्थान और महाराष्ट्र के अनेक इलाकों  में बोला जाता है। मराठी का माहिती अर्थात सूचना या जानकारी मध्य प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों  में प्रयुक्त होता है। यही नहीं उत्तरप्रदेश की जबान या वहां  बोली जाने वाली  हिंदी में शामिल कई शब्द मध्य प्रदेश के सागर , ग्वालियर , रीवा  और अन्य जिलों  की क्षेत्रीय बोलियों  में आकर सर्वमान्य हो गए हैं। एक समय था जब आजादी के आंदोलन में हिंदवी का खूब इस्तेमाल हुआ। ब्रज ,अवधी  बोलियों  ने हिंदी की ताकत और सौंदर्य को बढ़ाया। अनेक उर्दू भाषी या मुस्लिम शायरों  ने इन बोलियों में कालजयी साहित्य रचा जिसकी विस्तृत व्याख्या यहाँ संभव नहीं। ऐसी हिंदी से भला किसे अनुराग नहीं होगा। हिंदी सिनेमा  पर यह इल्ज़ाम  लगाया जाता है कि  हिंदी की टांग तोड़ने का काम किया है। यह आंशिक सत्य है। यह बात   तथ्य भी उतनी  ही अहम है कि  हिंदी सिनेमा ने मिश्रित हिंदी का सुन्दर प्रयोग भी किया। आज हजारों  हिंदी गीत सिर्फ और सिर्फ  मिली -जुली हिंदी की बदौलत जबान पर बरबस आ जाते हैं। उन्हें गाने - गुनगुनाने  से किसी को गुरेज़  नहीं।
   हमारे कार्यालयों में जिस हिंदी का उपयोग हो रहा , वह  बहुत प्रशंसनीय नहीं है। यहां  हिंदी की गरिमा खंडित कर दी गई  है। ड्राफ्ट के स्थान पर प्रारूप , फाइल  के स्थान पर नस्ती और छोटे दंड के स्थान पर लघु शास्ति  का इस्तेमाल अजीब भी लगता है। दर असल  भारत सरकार ने राजभाषा नीति में अठारह बिंदुओं को शामिल किया है । यह दस्तावेज सभी कार्यालयों को भेजा गया है । इनका  पालन करने के फेर में   राजभाषा का स्वरुप बिगाड़ा जा रहा। हिंदी  को उसका वास्तविक  सम्मान  उस दिन हासिल हो जाएगा जब हम कुछ उदार मन से अनेक भाषाओँ के सम्प्रेषणीय शब्द हिंदी में समाहित कर लेंगे।  इसकी हमारे देश के सभी राज्यों  में आवश्यकता है । वर्ष 1968 में संसद ने राजभाषा संकल्प पारित किया  था जिसके अनुपालन में केंद्रीय गृह मंत्रालय का राजभाषा विभाग हर साल एक वार्षिक कार्यक्रम जारी करता है । हाल ही जारी पत्र में  यह भी कहा गया है कि सूचना प्रौद्योगिकी की सहूलियतों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करते हुए हिंदी में कामकाज बढ़ाया जाए । अब हिंदी के कई फोन्ट  उपलब्ध हैं।  यूनिकोड कंप्यूटर पर राज कर रहा है। लेकिन सच तो यह है कि  हिंदी को बहुत इज्जत की दरकार है अभी भी। हिंदी की पताका शान से तभी लहराएगी  जब वह और भाषाओं  के शब्दों  से श्रृंगारित भी की जाए।        यह भी जरुरी है कि सरकारी विभाग, वैज्ञानिक और तकनीकी साहित्य हिंदी में तैयार करने के लिए जरुरी उपाय करें । राजभाषा से जुडे अधिकारियों को विभागीय कार्यो से अच्छी तरह परिचित कराया जाए ताकि वे अपना दायित्व बेहतर ढंग से निभा पाएं । सभी विभाग अपने विषयों से संबंधित संगोष्ठियां  सरल हिंदी में करें । इसके अलावा राजभाषा संबंधी आदेशों का अनुपालन दृढ़तापूर्वक किया जाए । किसी अधिकारी की और से  जानबूझकर की गई  अच्छी  हिंदी की अवहेलना  पर अनुशासनात्मक कदम उठाए जाएं । यह खेदजनक है कि संसदीय राजभाषा समिति की रिपोर्ट के पांचों खंडों पर जारी किए गए आदेशों का मंत्रालयों, विभाग और कार्यालयों ने  पूर्ण अनुपालन  नहीं किया। यह पालन अभी भी अपेक्षित  और प्रतीक्षित है । सहज , बोधगम्य और लोकप्रिय हिंदी  दफ्तरों में सम्मान हासिल करेगी तब एक बड़ी आबादी तक इसकी गूँज जाएगी। इसलिए अन्य भाषाओं  के फूल हिंदी के गुलदस्ते की सजावट के लिए बेहद मुफीद हैं , अभिशाप का तो सवाल ही नहीं उठता।
   हिंदी जन  - जन  की भाषा है और राष्ट्र की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है  इसलिए  सिर्फ यह न  हो कि हिंदी को कठिन , संस्कृत  निष्ठ  बनाकर सम्मानीय मान लिया जाए  बल्कि होना यह चाहिए  कि  भारतीय भाषाओं को सम्मान देते हुए  राजभाषा और राष्ट्रभाषा  हिंदी  को पर्याप्त बढ़ावा मिले। हिंदी को  सही अर्थो में सम्मान  देने के लिए  सम्पूर्ण समाज में आवश्यक वातावरण निर्मित किया जाए।  यह भी हो कि  शासकीय और निजी  कार्यालयों में  बढ़ावा देने के लिए हिंदी में अच्छा साहित्य भी उपलब्ध कराया जाए  । जाने - माने  साहित्यकारों की कृतियाँ कांच की अलमारी से झांकते हुए कहें कि  हमें पढ़ डालो। प्रेरणा  ही नहीं  दिखाई देती कहीं अभी तो।  प्रत्येक कार्यालय में पत्र  पत्रिकाओं  के जरिये सरल  हिंदी का प्रचार-प्रसार हो। अधिकारियों, कर्मचारियों में  हिंदी को सम्मानित करने की दिशा में कोई जोश ही नहीं। उनमें  अन्य शासकीय कार्यो की तरह समझ में आने वाली हिंदी का  उपयोग  बढ़ाने की स्वत:स्फूर्त भावना होना चाहिए । सरल हिंदी का उपयोग और हिंदी दिवस आयोजन  भी किसी विवशता से  वशीभूत होकर न किए जाएं ।                
     मध्यप्रदेश में अटलबिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय की शुरुआत हो गई है । देश में यह अनूठी पहल है । पीएच डी के लिए विद्या वारिधि जैसे शब्द का प्रयोग होते देखना सुखद है । आने वाले कुछ साल में यह शब्द और राज्यों तक जा पहुंचेगा ,यह यकीनी तौर  पर मान लीजिए। मध्यप्रदेश के इस विश्वविद्यालय की तर्ज पर अन्य प्रदेशों में भी विश्वविद्यालय प्रारंभ किए जाने चाहिए । मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान  जिस तरह हिंदी के पक्ष  में खड़े हैं उनके प्रयास उन्हें  स्वतंत्र भारत के प्रमुख हिंदी हितैषी  राज नेताओं  में शुमार करते हैं। इस तरह के कार्य   और प्रयास आजादी के बहुत पहले स्वामी विवेकानंद जी ने शिकागो में हिंदी सम्बोधन से और आजादी के बाद  अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं  ने  किये हैं। श्री राजेंद्र माथुर ने मध्य भारत में हिंदी को स्थापित किया।  श्री प्रभाष जोशी ,मुलायम सिंह यादव और वेद प्रताप वैदिक के प्रयास भी  कम  अहमियत नहीं रखते।  दरअसल  श्री शिवराज  सिंह चौहान जी ने हिंदी विश्वविद्यालय स्थापित करवा कर  लगभग उसी तरह के   ऐतिहासिक महत्व  के  कार्य की शुरुआत की  है जिस तरह हिंदी के बहु प्रसारित अखबारों ने अनेक वर्ष के प्रयासों से । उनकी इस सिलसिले में खुलज दिल से सराहना की जानी चाहिए।
 लेखक वर्ग के साथ ही व्यापारी हिंदी सेवी भी सम्मान  के पात्र 
    हिंदी दिवस पर कुछ लेखक पुरस्कृत हो जाते हैं । समाज के अनेक ऐसे वर्ग जो हिंदी की प्रतिष्ठा बढ़ाने का कार्य निरंतर कर रहे हैं उन्हें भी हिंदी दिवस पर सम्मानित किया जाना चाहिए । उदाहरण के लिए ऐसे व्यवसायी जो संस्थानों के हिंदी नाम जैसे  संस्कृति , काव्या , परिधान, श्रीमती साड़ी  संग्रह ,  कलानिकेतन. आदि उपयोग में लाकर उन्हें लोकप्रिय बनाने का कार्य करते हैं । दरअसल सरल  हिंदी  के राजदूत और प्रचारक अनेक उद्यमी और व्यवसायी  भी हैं।

 राष्ट्रभाषा   के प्रति युवा वर्ग का दृष्टिकोण     

 वैश्वीकरण और बाजार की ताकतों से भी राष्ट्रभाषा हिंदी की अवमानना देखने के दृश्य सामने आते हैं । युवा वर्ग पाश्चात्य जीवन शैली का अनुसरण करते हुए हिंदी की उपेक्षा का अनुचित कार्य कर बैठते हैं । उन्हें मॉल संस्कृति, फैशन और बातचीत के आधुनिक लहजे का इस्तेमाल करते हुए यह स्मरण नहीं रहता कि सबसे पहले वे हिंदुस्तानी हैं और हिंदी उनकी राष्ट्रभाषा है । यदि युवा वर्ग हिंदी के प्रति सम्मानजनक दृष्टिकोण का परिचय दे तो भारत में हिंदी की प्रतिष्ठा पूर्ण स्थिति  बन सकती हैं ।
    सरल हिंदी की पताका लहराते हुए सिर्फ हिंदी दिवस पर सक्रिय दिखने वाले मित्रों से यही कहना चाहता हूं कि हिंदी को रोजाना के व्यवहार और जीवन शैली में शामिल करें । कितना अच्छा हो यदि बात-बात में सॉरी, एस्क्यूजमी और थैक्यू कहने की बजाए धन्यवाद, शुक्रिया, आभारी हूं, क्षमा करेंगे आदि शब्दों का प्रयोग किया जाए । बोलचाल की हिंदी में समाहित अन्य भारतीय भाषाओं के शब्द हिंदी को सशक्त बनाते हैं । यह कोशिशें हिंदी के लिए आशीर्वाद से कम नहीं।
 (लेखक  सात हिंदी सिंधी पुस्तकों  के लेखक  हैं )

अशोक मनवानी 
 एफ  90 / 61 , तुलसी नगर , भोपाल
पिन - 462003 (मध्य प्रदेश )
 0755 - 2556737 ( निवास )
 09425680099


lamhi ki galyon me.

मेरे लिए लमही की यात्रा यादगार रहेगी। निमंत्रण सरकारी नहीं व्यक्तिगत था और एक जिज्ञासा थी , यह जगह देखने की।साथ ही यह जानने की कि  लमही में किस तरह मुंशी प्रेमचंद जयंती मनाई  जाती है। बीती 31  जुलाई  2015 की सुबह पहुँच  गया -बनारस , फिर पाण्डेपुर होकर लमही तक.  ग्राम के बाहर भव्य द्वार बना था , जिस पर लिखा है , प्रेमचंद पुरी।   गाँव में दाखिल होने पर गौ -पालक रहे लेखक मुंशी प्रेमचंद की गौ -माता के लिए सम्मान की भावना को  दिखलाती  एक  गाय की प्रतिकृति के दर्शन हो जाते हैं। ग्राम में अंदर जाते जायेंगे तो गलियां  और रास्ते सँकरे लेकिन साफ़ मिलेंगे।  लोग सहज ,सरल। मुंशी जी की कहानियों के किरदारों की तरह। लमही उत्सव का आयोजन क्षेत्रीय  सांस्कृतिक केंद्र , वाराणसी  और संस्कृति विभाग ने किया था। इसके समानान्तर ग्राम पंचायत की और से
भी कार्यक्रम हो रहा था। इस आयोजन को भी कुछ सरकारी सहयोग मिल जाता है  .  दरअसल  लमही महोत्सव बिलकुल आंचलिक रंग में रंगा था।  एक नाटक दल  जौनपुर से आया था।  मेरे लिए ठेठ बनारसी में मुंशी प्रेमचंद जी की कथाओं के अंश सुनना  एक दिलचस्प अनुभव था। इसे काशी  की स्थानीय बोली कहें या  बनारसी खड़ी  बोली , पांच नाटक देखना आनंद दे गया। पंच  परमेश्वर , बड़े घर की बेटी ,इस्तीफ़ा , गुल्ली डंडा  और सवा सेर गेहूँ।  सबसे ज्यादा किसी लेखक की कहानियों  की नाट्य प्रस्तुतियाँ देश में हुई हैं तो वे सिर्फ मुंशी जी ही हैं। तो  बात  हो रही थी , लमही की गलियों  की। गाँव  में एक चाय की दुकान है , नीबू की खास चाय मिलती है ,दोस्त राजीव गोंड  के साथ हम भी पहुँच गए स्वाद लेने , वाही माटी का कुल्हड़ , आधा  ताजा नीबू निचोड़कर एक छोटी चुटकी मसाला डाला गया।   लमही पहुँचते ही इस पेय के साथ यात्रा  की थकान उतर  गई।  इसके बाद हम  ग्राम के चौराहे पर आये , मंच पक्का बना है। यहाँ अब नाटको के मंचन शुरू हो चुके थे। प्रेमचंद  निवास की रंगाई -पुताई प्रशासन ने महीना भर पहले करवा दी थी। यहाँ चित्र प्रदर्शनी भी लगी थी। एक नाटक यहाँ भी देखा। सबसे ज्यादा रंग भूमि के अंश   मातृभूमि के किरदारों ने आनंद  दिलवाया। खांटी स्थानीय शैली थी और दुखिया जैसे पात्र ने तो अभिनय की ऊंचाइयों को छुआ। यह मुंशी प्रेमचंद के साहित्य के दलित  पात्रों  की तरह  बिलकुल वास्तविक स्वरुप में देखने को मिला। जिन लोगों  से लमही में मुलाकात हुई उनमें  लोक गायक  श्री हीरालाल यादव , डॉ राम सुधार  सिंह  और संस्कृति   विभाग के अफसर डॉ रत्नेश वर्मा शामिल थे । लोक कला संस्थान ने बहुत दिन तक इस आयोजन की तैयारियां की होंगी। दोपहर बाद बनारस हिन्दू विश्विद्यालय की संगोष्ठी में करीब एक घंटे तक व्याख्यान सुने। मुंशी प्रेमचंद के दो बेटों के बारे में दुनिया जानती है। उनकी इकलौती  बेटी का विवरण मुझसे सुनकर लोग चकित थे।  वर्ष 1986  में सागर के  उस यादगार साक्षात्कार को सुनकर सभी सुखद हैरत में पड़  जाते हैं ,जो कमला देवी जी से लिया था। पिता की सभी कृतियाँ पढ़ने वाली कमला जी  ने  85  की अवस्था मे  गुड़ गाँव  में शरीर त्यागा था वर्ष 1999  में । यदि वे जीवित होती तो इस साल  सौंवा जन्म दिवस मनातीं।  राय परिवार ( प्रेमचंद जी के कुटुम्ब  का यही उपनाम है ) में अभी श्री केके राय सबसे ज्यादा आयु ( 95)  के हैं जो जीवित हैं। लमही में ही रहते हैं। मुंशी जी के भतीजे हैं।  मुंशी जी की बिटिया कमला जी  1929  में मध्य प्रदेश के सागर जिले के देवरी कसबे में श्री वासुदेव श्रीवास्तव से ब्याही थी . बाद में यह परिवार सागर आकर बस गया था। मुंशी जी सागर कुल चार बार आए -1929  से 1936  के मध्य। 
0 अशोक मनवानी 

Monday, September 21, 2015

उड़ान भरता दतिया

                   
           
दतिया  में मेडिकल कालेज शुरू करने की पहल प्रशंसनीय है .यह बुंदेलखंड अंचल का इस सरकार  की और से शुरू होने वाला दूसरा  मेडिकल कालेज होगा .बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण में सागर संभाग के पांच जिलों के साथ ही ग्वालियर संभाग का दतिया जिला भी शामिल है .यह शहर माँ पीताम्बरा  के सिद्ध स्थान और सोनागिर , भांडेर , रतनगढ़ , उन्नाव , पंडोखर जैसे अनेक स्थानों के कारण भी जाना जाता है .यहाँ धार्मिक पर्यटन को भी बढ़ावा दिया जा रहा है .दतिया  की  इस विकास यात्रा में  मंत्री डॉ नरोत्तम मिश्र  का अहम् योगदान है .